Sunday 3 April 2016

ग़ज़ल- क्या कहें किससे कहें


क्या कहें किससे कहें सुनता नहीं कोई।
ज़ख्म पे मरहम मेरे धरता नहीं कोई।।

भीड़ की नजरों का मैं हूँ मुंतज़िर कब से।
मुफ़्तकिर ऐसा हुआ रुकता नहीं कोई।।

आरज़ू किससे कहें तारीक जीस्त की।
रोशनी के ख़्वाब अब बुनता नहीं कोई।।

ख्वाहिशें ऐसी की सब गुलज़ार हो जाये।
बाग़ से काँटे मगर चुनता नहीं कोई।।

अर्श पे जो था परिंदा फ़र्श पर अब है।
वक्त की चाबुक से तो बचता नहीं कोई।।

वोट की खातिर करे है रहनुमाई वो।
मुल्क की बातें यहाँ करता नहीं कोई।।

बुलहवस अब हो गया इंसान भी गोया।
बेवज़ह सजदे में अब झुकता नहीं कोई।।

                                 -डॉ पवन मिश्र

मुफ़्तकिर= दरिद्र, कंगाल       मुंतज़िर= प्रतीक्षारत
तारीक= अंधकारमय            ज़ीस्त= जिंदगी
बुलहवस= लालची                गोया= मानो

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