डिजिटल उपस्थिति और शिक्षक विरोध-
वर्तमान में बेसिक शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश के द्वारा शिक्षकों की उपस्थिति हेतु जारी किए गए एक फरमान की सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक बहुत चर्चा है। विषय शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति का है। एक तरफ शिक्षक इस आदेश को अव्यवहारिक बताते हुए विरोध में लामबंद हैं तो दूसरी तरफ प्रशासन स्वयं को सही साबित करने में लगा है। मीडिया और जन सामान्य का एक तबका इसे शिक्षकों की हठधर्मिता से जोड़कर देख रहा है, प्रचारित किया जा रहा है कि शिक्षक समय से विद्यालय नहीं आते इसीलिये डिजिटल उपस्थिति का विरोध कर रहे हैं।
एक शिक्षक होने के नाते इस लेख के माध्यम से मैं शिक्षकों के पक्ष को बिंदुवार स्प्ष्ट करने का प्रयास रहा हूँ। यहाँ यह समझना अति आवश्यक है आखिर शिक्षक क्यों इस आदेश को अव्यवहारिक कह रहे हैं ?
1) पहला और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिस वेब पोर्टल के माध्यम से शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति की बात हो रही है वह तकनीकी रूप से बेहद पंगु है। उसी पोर्टल के माध्यम से गत कई वर्षों से छात्रों के नामांकन आदि की प्रक्रिया शिक्षकों द्वारा की जा रही है। ढेरों उदाहरण देखने को मिलते हैं कि अमुक छात्र का नामांकन आज पोर्टल पर कर दिया गया लेकिन कई दिनों तक वह प्रदर्शित नहीं होता। आप नामांकन दो बार कीजिये, तीन बार कीजिये लेकिन परिणाम वही, 'ढाक के तीन पात।' हालांकि कई बार दो-तीन दिन में नाम पटल पर दिखने भी लगते हैं। यही हाल उस ऐप का भी है जिसके जरिये शासन/प्रशासन बेसिक शिक्षा को डिजिटल भारत की दौड़ का हिस्सा बनाना चाहता है। ऐप के मुख्य पृष्ठ पर घूमता चक्र आपके धैर्य की परीक्षा लेता रहता है। शासन द्वारा उपलब्ध कराए गए टेबलेट की गुणवत्ता का अंदाजा भी लेख के पाठक आसानी से लगा सकते हैं। कुछ शिक्षकों ने तो यहां तक बताया है कि ऐप के द्वारा लोकेशन का आकलन भी ठीक प्रकार से नहीं हो रहा है। अब यहीं से शिक्षकों के विरोध का मुख्य बिंदु जन्मता है कि इस पंगु तकनीक के माध्यम से प्रतिदिन शिक्षकों की उपस्थिति की सटीक जानकारी कैसे ली जा सकती है ? सुदूर ग्रामीण क्षेत्र का शिक्षक अपनी दैनिक उपस्थिति के लिये जर्जर नेटवर्क और पंगु पोर्टल/ऐप पर क्यों आश्रित रहें?
2) यह स्प्ष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि एक शिक्षक, समाज निर्माण का कितना महत्वपूर्ण अंग होता है? लेकिन उसी शिक्षक के प्रति वर्तमान में प्रशासन का आचरण पूर्णतया अविश्वास आधारित है। मानो यह मान लिया गया है कि शिक्षक कामचोर है जो न तो समय से विद्यालय आता है न ही वह शिक्षण कार्य करता है। दण्ड आधारित नीतियों का निर्माण करने वाले नीति नियंताओं को लगता है कि वो डंडे से विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को मानकों के अनुरूप कर लेंगे। न तो यहां विश्वासयुक्त सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए जाने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास किये गए न ही शिक्षकों की बुनियादी समस्यायों पर विचार।
बेसिक शिक्षा परिषद के शिक्षक अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन मात्र 14 आकस्मिक अवकाशों से करते हैं। यह विडंबना ही है कि स्वयं के विवाह का विषय हो या अपने पुत्र/पुत्रियों का, किसी आकस्मिक दुखद परिस्थितियों की बात हो या परिवारीजन के मृत्योपरांत होने वाले धार्मिक कर्मकांड (तेरहवीं आदि), उत्तर प्रदेश का एक बेसिक शिक्षक इन सारे दायित्वों को नियम विरुद्ध जाकर चिकित्सकीय अवकाश लेकर ही पूर्ण कर पाता है क्योंकि उसे आकस्मिक अवकाश के अतिरिक्त कोई अन्य अवकाश देय ही नहीं है। क्या कभी अवकाश सम्बन्धी इन बुनियादी समस्याओं पर शासन ने विचार किया ? क्या आवश्यक नहीं कि प्रशासन द्वारा शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति की बात इन समस्याओं के निदान के बाद की जाती ? जबकि शिक्षकों से इतर राज्य कर्मचारियों को अन्य प्रकार के अवकाश भी देय हैं।
3) डिजिटल उपस्थिति जैसा अव्यवहारिक आदेश देने वाला प्रशासन क्या उत्तर प्रदेश के अन्य राज्य कर्मचारियों की भांति बेसिक शिक्षा के शिक्षकों और उनके आश्रितों को चिकित्सकीय सुविधाएं मुहैया कराने हेतु जिम्मेदार नहीं है ? इस बुनियादी सुविधा पर कोई सार्थक पहल शासन/प्रशासन की तरफ से क्यों नहीं होती ?
4) पोलियो उन्मूलन, परिवार सर्वेक्षण, मतदाता पुनरीक्षण, मध्यान्ह भोजन व्यवस्था जैसे ढेरों गैर शैक्षणिक कार्य विद्यालय अवधि के अतिरिक्त तथा अवकाश के दिनों में कराना क्या शिक्षकों का शोषण नही है ?
मैं स्पष्टतः कह रहा हूँ कि कोई भी शिक्षक डिजिटाइलेशन के विरोध में नहीं है। विभाग द्वारा प्रदत्त ढेरों ऐसे कार्यों का निष्पादन भूतकाल से उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग के शिक्षक करते आए हैं। क्या प्रशासन के लिये यह बिंदु विचारणीय नहीं है कि जो शिक्षक गत कई वर्षों से निजी संसाधनों का प्रयोग कर विभाग की विभिन्न डिजिटल योजनाओं को गति देने में रत है, वही शिक्षक अब विभाग द्वारा टेबलेट और सिम उपलब्ध कराए जाने के बाद भी अपनी डिजिटल उपस्थिति के लिए सहमत क्यों नहीं हो पा रहा? डिजिटल उपस्थिति को लेकर हमारा मत है कि जब तक आपकी तकनीकि मानक के अनुरूप पुष्ट न हो इसे हमारी दैनिक उपस्थिति, हमारी सेवा और वेतन से कैसे सम्बद्ध किया जा सकता है ? शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति हेतु प्रयोग की जाने वाली तकनीकि की आधारभूत संरचना को मानकों की कसौटी पर कसे बिना उसे व्यापक रूप से आप कैसे लागू कर सकते हैं ? विचार कीजिये कि यदि किसी तकनीकि कारण से किसी शिक्षक की उपस्थिति किसी दिन ऐप पर अंकित होने से रह जाए तो पूरे दिन वो किस मनोदशा से विद्यालय में रहेगा ? क्या वो पूरे मनोयोग से शिक्षण कार्य कर पाएगा ? इस तरह का मानसिक दबाव एक शिक्षक पर लाद कर क्या शिक्षा के विभिन्न आयाम पूर्ण हो सकेंगे ? जबकि उस दिन की अनुपस्थिति में उस अमुक शिक्षक का कोई दोष नहीं...
यहां यह स्प्ष्ट करना भी आवश्यक है कि शिक्षकों की अवकाश सम्बन्धी बुनियादी समस्यायों और उनके पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति हेतु राज्य कमर्चारियों की भांति अन्य बुनियादी सुविधाओं की बात कर शिक्षकों के बीच विश्वास का वातावरण बना निःसन्देह ढेरों निर्दिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। लेकिन एक शिक्षक को मात्र कामचोर और समयचोर मानकर जब तक नीतियां बनती रहेंगी, वो अव्यवहारिक ही रहेंगी। एक शिक्षक को महज वेतनभोगी कर्मचारी या सरकारी नौकरी करने वाले नौकर के रूप में देखने से न तो उस शिक्षक के प्रति न्याय होगा और न ही यह समाज के हित में होगा। इसीलिये सभी नीति नियंताओं से करबद्ध आग्रह है कि शिक्षकों के साथ शिक्षक जैसे सम्मानित पद के गरिमानुकूल व्यवहार किये जाने की आवश्यकता है। 'वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः' की सूक्ति को जीने वाले शिक्षक समाज के टूट रहे आत्मविश्वास को शक्ति प्रदान किये जाने की आवश्यकता है। डंडे से शिक्षकों को नियंत्रित किये जाने की मनोदशा से बाहर आने की आवश्यकता है। इसलिये नीति नियंताओं को आत्मचिंतन करना होगा, सकारात्मक माहौल बनाना होगा। तभी शिक्षा का, शिक्षार्थियों का और इस प्रदेश का विकास सम्भव हो सकेगा।
✍️ डॉ पवन मिश्र