Tuesday 12 June 2018

ताटंक छन्द - कविता और मंच



कलमकार कुछ मंच सजाते, फूहड़ सतही बातों से।
झुलस रही है कविता जिनके, तेजाबी आघातों से।।
बनी द्रौपदी सिसक रही है, मंचो पर हिंदी भाषा।
लील रही साहित्य-सृजन को, धन वैभव की प्रत्याशा।।

पैसों की खन खन ध्वनि सुनकर, काव्य गढ़े नित जाते हैं।
और विदूषक मंचों पर चढ़, लोगों को भरमाते हैं।।
भावों की फूहड़ता से जब, शब्द सजाये जाते हैं।
तब रचनाओं की लाशों पर, मंच बनाये जाते हैं।।

कैसे कह दूँ दुर्योधन ही, चीरहरण का दोषी था।
मौन साध जो भी बैठा था, उस कुकृत्य का पोषी था।।
पन्त निराला जयशंकर हो, तुम्ही सुभद्रा की थाती।
मान घटेगा हिंदी का तो, कैसे फूलेगी छाती।।

मैं दिनकर के पथ का चारण, अपना धर्म निभाऊंगा।
शपथ मुझे हिंदी भाषा की, इसका मान बढ़ाऊंगा।।
मां वाणी का सेवक हूँ मैं, कलम बेच ना पाऊँगा।
भूखा मर जाऊंगा लेकिन, भाँड़ नहीं बन जाऊँगा।।

                                       डॉ पवन मिश्र

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