Tuesday 13 October 2015

ग़ज़ल- संगदिल को छुआ तो पिघलने लगे


संगदिल को छुआ तो पिघलने लगे
रफ्ता रफ्ता तो वो भी मचलने लगे।।

जान के हमको ये कुछ तसल्ली हुई।
ठोकरें खा वो खुद ही सँभलने लगे।।

गांव की वीथियां हो गई मौन क्यूँ।
छोड़ कर सब शहर को ही चलने लगे।

जिनके दामन पे छीटें सियाही के है।
सर पे टोपी पहन के निकलने लगे।।

अब किसी की शिकायत करे क्या पवन।
लोग कपड़ों के जैसे बदलने लगे।।

                 -डॉ पवन मिश्र

संगदिल= पत्थर दिल, वीथियां= गलियां

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