Sunday 3 July 2016

ग़ज़ल- इश्क रहमत है खुद की


इश्क रहमत है खुदा की जिसने समझाया मुझे।
पा लिया उसको अगर, फिर और क्या पाना मुझे।।

सूझता कुछ भी न था बस तीरगी ही तीरगी।
आ गया वो नूर लेकर मिल गया रस्ता मुझे।।

ख़्वाब आँखों को दिखा कर अश्क़ क्यूँ वो दे गया।
सोचता हूँ मैं ये अक्सर क्यूँ वो टकराया मुझे।।

इश्क की बातें बहुत करता था जो शामो शहर।
छोड़ कर इक मोड़ पर वो कर गया तन्हा मुझे।।

वक्त ने जब भर दिया उससे मिले हर जख़्म को।
बेवफा हमदम वही फिर याद है आया मुझे।।

                       ✍ डॉ पवन मिश्र

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