Sunday 3 February 2019

ग़ज़ल- मेरे कमरे में भी इक चांदनी है



तेरे दीदार की लत हो गई है।
नहीं बुझती ये कैसी तिश्नगी है।।

उजालों से नहाता आजकल हूँ।
मेरे कमरे में भी इक चाँदनी है।।

तुम्ही तुम बस नजर आते हो मुझको।
खुदाया कैसी ये जादूगरी है।।

बहुत दुश्वार है राहे मुहब्बत।
मगर ये आशिकी जिद पे अड़ी है।।

नही दिखती कोई सूरत शिफ़ा की।
खुदा ये आशिकी जब से हुई है।।

किसी दीवाने का कमरा है शायद।
यहां की ख़ामुशी भी चीखती है।।

मुहब्बत ने यही बख़्शा पवन को।
तुम्हारी याद है और शाइरी है।।

              ✍ *डॉ पवन मिश्र*

शिफ़ा= रोगमुक्ति

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