Thursday 4 June 2020

ग़ज़ल- ख्वाहिशों में कैद है


ख्वाहिशों में कैद है वो बेड़ियों में कैद है।
आदमी खुद की बनाई उलझनों में कैद है।।

राह की मुश्किल का हल तो हौसलों में कैद है।
और मंज़िल का पता तो कोशिशों में कैद है।।

मुन्तज़िर चातक झुलसता तिश्नगी की आग में।
और चातक की मुहब्बत सीपियों में कैद है।।

शह्र में मजदूर नें चादर जुटा ली है मगर।
गांव में होरी अभी भी मुश्किलों में कैद है।।

लोकशाही में सभी के अपने-अपने झुंड हैं।
सुब्ह का अख़बार भी पूर्वाग्रहों में कैद है।।

सिगरटों का है धुँआ और शोर ढपली का बहुत।
क्रांति का नवरूप है ये तख्तियों में कैद है।

गीत गज़लो छंद की रसधार अब कैसे बहे?
मंच पर साहित्य ही जब चुटकुलों में कैद है।।

                                   ✍️ डॉ पवन मिश्र

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