Monday 15 August 2016

ताटंक छन्द- आजादी


चिन्तन मनन करो नित सोचो, आजादी क्यूँ पाई है।
सन् सैतालिस तो उद्भव था, बाकी बहुत लड़ाई है।
लक्ष्य मात्र इतना ही था क्या, अंग्रेजों से आजादी।
मुख्य धार से जुड़ ना पाई, अब भी आधी आबादी।१।

नग्न देह पर वस्त्र नहीं है, पेट तरसता रोटी को।
साहस से बस मात दिये है, हिमपर्वत की चोटी को।।
दिन में चूल्हा जला अगर तो, भूखे सोते रातों में।
स्वप्न देखते नेताओं की, कोरी कोरी बातों में।२।

कुछ घर में किलकारी है तो, कहीं चीखते हैं बच्चे।
झूठों की जयकार मची है, सूली पर चढ़ते सच्चे।।
काँटों को शह देती सत्ता, कली मसल दी जाती है।
वंचित तो वंचित ही रहता, फिर कैसी आजादी है।३।

आज भूल बैठे हैं हम क्यूँ, भगत सिंह के नारों को।
बिस्मिल सुभाष शेखर के उन, हर हर के जयकारों को।।
भूल गये मेरठ काकोरी, चम्पारन की आंधी को।
छद्म गांधियों के चक्कर में, भूले असली गांधी को।४।

तुष्टिकरण की राजनीति में, पूज रहे गद्दारों को।
महिमामण्डित करते रहते, जेहादी हत्यारों को।।
कुछ तो मान रखो वीरों का, वीरों की आशाओं का।
बल्लभ भाई रोते होंगे, हाल देख सीमाओं का।५।

वीर शहीदों की आँखों का, सपना अभी अधूरा है।
माँ का आँचल छिन्न भिन्न है, मानचित्र नहि पूरा है।।
उस दिन ही सच्चे अर्थों में, आजादी कहलायेगी।
जब गिलगित से गारो तक भू, जन गण मंगल गायेगी।६।

                                   ✍डॉ पवन मिश्र

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