Sunday 28 August 2016

मनहरण घनाक्षरी- बाढ़

जीवन आधार है जो, सृष्टि के जो मूल में है।
लूटने चला है देखो, धरा के बहार को।।
नभ से बरसता जो, बूँद बूँद अमिय सा।
उसकी ही अतिवृष्टि, सज्ज है संहार को।।
नगर डगर सब, जल में समा गए हैं।
जीवट भी देखो अब, तक रहा हार को।।
काल विकराल बन, रूप महाकाल धर।
लीलने चला है जल, जीवन की धार को।१।

खेत खलिहान सँग, नेत्र भी हैं जलमग्न।
रात बनी काली और, दिन भी हैं स्याह से।।
त्राहि त्राहि कर रहे, जीव जंतु मर रहे।
गुंजित धरा है बस, करुण कराह से।।
आहत हैं नर-नारी, जीवन पे जल भारी।
देखते विभीषिका हैं, कातर निगाह से।।
ईश तेरा ही प्रसाद, बन रहा श्राप अब।
प्रभु करो रक्षा इस, प्रलय प्रवाह से।२।

                         ✍डॉ पवन मिश्र

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