Friday 21 July 2017

ग़ज़ल- ये बारिश की बूंदें


ये बारिश की बूँदें सताती बहुत हैं।
न चाहूँ मैं फिर भी भिगाती बहुत हैं।।

ये गालों को छूके लबों पे थिरक के।
विरह वेदना को जगाती बहुत हैं।।

दबे पाँव सँग तेरी यादें भी आकर।
भिगाती बहुत हैं रुलाती बहुत हैं।।

फ़लक से ये गिरकर ज़मींदोज़ होतीं।
ये जीवन का दर्शन सिखाती बहुत हैं।।

हुईं जज़्ब मिट्टी में बारिश की बूँदें।
मगर फिर भी मुझको जलाती बहुत हैं।।

ज़मीं सींचती हैं फुहारें ये लेकिन।
टपकती छतों को चिढ़ाती बहुत हैं।।

                     ✍ डॉ पवन मिश्र

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