Tuesday 12 December 2017

नवगीत- लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है


अब तो आओ कृष्ण धरा ये थर्राती है।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है।।

द्युत क्रीड़ा में व्यस्त युधिष्ठिर खोया है,
अर्जुन का गांडीव अभी तक सोया है।
दुर्योधन निर्द्वन्द हुआ है फिर देखो,
दुःशासन को शर्म तनिक ना आती है।।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है।।

धधक रही मानवता की धू धू  होली,
विचरण करती गिद्धों की वहशी टोली।
नारी का सम्मान नहीं अब आँखों में,
भीष्म मौन फिर गांधारी सकुचाती है।।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है।।

सोने के मृग गली गली अब फिरते हैं,
और जटायू बेबस मर मर गिरते हैं।
लक्ष्मण रेखा लांघ रही देखो सीता,
संत भेष में फिर से रावण घाती है।।
लुटने को है लाज द्रौपदी चिल्लाती है,
अब तो आओ कृष्ण धरा ये थर्राती।।


           ✍ डॉ पवन मिश्र

No comments:

Post a Comment