Saturday 24 September 2016

ताटंक छन्द- बदलते शब्द


एक दौर जीवन का वो जब, 'क' से कबूतर होता था।
उड़ता था उन्मुक्त गगन में, नींद चैन की सोता था।।
'ख' से खाली जेब थी लेकिन, नित नव सपने बोता था।
'ग' के रँगे गुब्बारों खातिर, 'घ'ड़ी घड़ी मैं रोता था।१।

तितली ही प्यारी लगती थी, 'त'कली मन को भाती थी।
दिन भर होती भागा-दौड़ी, 'थ'कान नजर न आती थी।।
'द'ही जलेबी का लालच दे, अम्मा हमे बुलाती थी।
'ध'नुष-बाण, तलवार तराजू, मेले से वो लाती थी।२।

अद्भुत दिन थे बचपन के वो, याद हमेशा आते हैं।
वर्ण वही हैं माला के पर, शब्द बदलते जाते हैं।।
'क' मुंह फाड़े खड़ा सामने, काम काम चिल्लाता है।
'ख' कहता खुदगर्ज़ बनो और, लाखों 'ग'म दे जाता है।३।

लेकिन रिमझिम बूंदें अब भी, अंतर्मन छू जाती हैं।
यादों में कागज की नावें, हलचल खूब मचाती हैं।।
वही कबूतर, तकली, तितली, सपने में ललचाते हैं।
बचपन की गलियों में फिर से, हमको रोज बुलाते हैं।४।


                                     ✍डॉ पवन मिश्र

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