Wednesday 7 September 2016

ग़ज़ल- चाहत को मेरी यूँ न सनम आजमाइये


चाहत को मेरी यूँ न सनम आजमाइये।
तन्हा बहुत है जीस्त ये अब आ भी जाइये।।

भरता नहीं है वक्त मेरे दिल के घाव भी।
नासूर बन रहा है ये मरहम लगाइये।।

दीदार को तरस रहीं आँखों की क्या ख़ता।
चिलमन की ओट से न इन्हें यूँ सताइये।।

बेताब हैं महकने को कलियाँ बहार की।
काँटों से पाक उनके ये दामन बचाइये।।

मदहोश करती है बहुत आवाज ये तेरी।
इक बार तो मेरी भी ग़ज़ल गुनगुनाइये।।

कब तक रहेंगे आप पवन से खफ़ा खफ़ा।
अब रात संग बात गई मान जाइये।।

                          ✍ डॉ पवन मिश्र

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