Saturday 3 December 2016

ग़ज़ल- डूबा हुआ है


रंजो गम में सारा घर डूबा हुआ है।
मेरे दिन का हर पहर डूबा हुआ है।।

इस ज़माने की नहीं परवाह उसको।
इश्क़ में जो बेख़बर डूबा हुआ है।।

ख्वाहिशों सँग उड़ रहा है आसमां में।
इश्क़ में उनके मगर डूबा हुआ है।।

क्यों नहीं फिर से सजाता ख़्वाब अपने।
क्यों गमों में इस कदर डूबा हुआ है।।

मुस्कुराकर जीस्त को आसान कर ले।
दर्द में क्यूँ ये सफ़र डूबा हुआ है।।

खुद फ़ना होकर किया रौशन जहां को।
तीरगी में उसका घर डूबा हुआ है।।

जिंदगी के मायने हैं और लेकिन।
जरपरस्ती में बशर डूबा हुआ है।।

जुल्म पर भी ख़िड़कियाँ हैं बन्द सारी।
किस नशे में ये शहर डूबा हुआ है।।

हो गया हावी अँधेरा ज़िंदगी पर।
दिन में भी सूरज इधर डूबा हुआ है।।

लोग सड़कों पर हैं लेकिन मुक्तदिर वो।
नींद में ही बेख़बर डूबा हुआ है।।

तिश्नगी में जल रहा कैसे पवन जब।
आंसुओ से तर ब तर डूबा हुआ है*।।
             
                         ✍ डॉ पवन मिश्र
*जनाब "शिज्जु शकूर" जी का मिसरा

ज़ीस्त= जिंदगी                     तीरगी= अँधेरा
जरपरस्ती= धन लालसा         बशर= आदमी
मुक्तदिर= सत्तावान                तिश्नगी= प्यास

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