Monday 16 October 2017

ग़ज़ल- गुलों को सदा खार ने ही छला है


जमाने का दस्तूर ये ही रहा है।
गुलों को सदा खार ने ही छला है।।
खार= कांटा

बहुत कीमती है ये मोती सँभालो।
पलक पे जो आके तुम्हारी रुका है।।

जमाना क्या समझेगा अपनी मुहब्बत।
ये तुझको पता है ये मुझको पता है।।

खुदा से मिलेगा वो इंसान कैसे।
ज़माने की राहों में जो गुमशुदा है।।

उसी को सलामी है देती ये दुनिया।
यहाँ शख़्स तप के जो कुंदन बना है।।

मुकद्दर में जो था मिला है पवन को।
नहीं जिंदगी से कोई भी गिला है।।

                      ✍ डॉ पवन मिश्र

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