Tuesday 3 October 2017

ग़ज़ल- जिंदगी का यार मेरे आसरा कुछ भी नहीं


जिंदगी का यार मेरे आसरा कुछ भी नहीं।
मौत को सच मान लो इसके सिवा कुछ भी नहीं।।

भाग्य का लिक्खा हुआ भी बाअमल को ही मिला।
हाथ बांधे जो रहा उसको मिला कुछ भी नहीं।।
बाअमल= कर्मशील

लाश है या आदमी है रहनुमा के पा-तले ?
घुट रहा है दम मगर वो बोलता कुछ भी नहीं।।
पा-तले= पैरों के नीचे

भूख लाचारी गरीबी सब मिला इस मुल्क को।
कौन कहता साठ सालों में मिला कुछ भी नहीं।।

इश्क़ के सब फ़लसफ़े जिसने पढ़ाये थे मुझे।
कल मिला इस क़द्र जैसे जानता कुछ भी नहीं।।

तुमको जाना है तो जाओ ओढ़ कर मजबूरियाँ।
सच कहूं ? इस बात से मुझको गिला कुछ भी नहीं।।

क्या करेगा जोड़ कर दुनियावी चीजों को पवन।
साथ जब तुम ही नहीं तो अब मेरा कुछ भी नहीं।।

                         ✍ डॉ पवन मिश्र

No comments:

Post a Comment