Sunday 19 November 2017

ग़ज़ल- ले जाएंगे


इश्क़ की हर रस्म हमदम हम निभा ले जाएंगे।
गर नहीं अब्बा जो माने हम भगा ले जाएंगे।।

डेढ़ पसली के थे लेकिन इश्क़ के मारे थे हम।
सोच थी चौहान बन संयोगिता ले जाएंगे।।

चैन दिल का ले गए और खोपड़ी के बाल भी।
ज़र ज़मीं भी ले गए वो और क्या ले जाएंगे ?

ख्वाब आंखों से मिटा के आंसुओं से भर दिया।
हम बहे तो देख लेना सब बहा ले जाएंगे।।

जुगनुओं से जीतना जिनकी नहीं औकात में।
कैद कर सूरज को मेरे वो भला ले जाएंगे ?

जो बहुत उम्मीद लेकर रहनुमा के साथ हैं।
और कुछ चाहे न पाएं रायता ले जाएंगे।।

साठ सालों तक तिजोरी की हिफाजत दी जिन्हें।
क्या पता था एक दिन वो सब चुरा ले जाएंगे।।

                                   ✍ डॉ पवन मिश्र

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