Sunday 6 December 2015

कहानी- हुज्जती दद्दू


गली के मोड़ पर ही वो जमीन पे दो टोकरियां रख सब्जी लगाता था। एक अजीब सा समाजवाद था उन टोकरियों में जिसमें अमीरों की थाली के टमाटर, गोभी गरीबों के साग संग दिखते थे। काश्मीर पर भारत पाक सम्बन्धों की बानगी सी रखने की जगह को लेकर रोज रोज की मुन्ना संग उसकी झिक-झिक, पैसे न कम करने को लेकर ग्राहकों से खिट-पिट के बाद चलते चलते आवारा घूमती गाय को कुछ साग खिला जाना उसकी शामचर्या में शामिल था।
नाम तो पता नहीं लेकिन सब दद्दू बुलाते थे। रोज की इस पुनरावृत्ति के बारे मैंने एक दफ़ा पूछा, समझाना भी चाहा दद्दू थोड़ा धीरज धरा करो, मीठा मीठा बोला करो। पुण्य मिलने का रामबाणी लालच भी दिया। फिर क्या था दद्दू गुस्से से ऐसे लालटेन हुए जैसे ओसामा से ओबामा। बोले "लला खटोला तो हमही बिछाइबे हियन। दस सालें हुई गई हैं हमें। औ तुम जे मुन्ना से कहि देओ हमसे ज्यादा बकैती न करे।रंगबाजी काहू की नई देखत हम। बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है और ई सरमा जी का लागत है कि हम फोकट मा दई दे सब्जी इनका। और हमरे पुन्य के काजे तुम न फटो भगवान देखिहें सब।" और न जाने कौन कौन सी बड़बड़। जो न तो मैंने पूछी और न ही जिनसे मुझे सरोकार था। फिर गाय को साग खिला वो अपने रस्ते हम अपने घर।
 आज अचानक मण्डी में दिख गए दद्दू। फिर उसी हुज्जती अंदाज मे। एक आढ़ती से अपनी टोकरी पार्टी के लिये उचित मूल्य पर समाजवादी प्रत्याशी की चाह में उलझे थे। "जे लुबिया सही लगाये देओ तो कदुवा भी ले लेबे और तुरई भी। तुम पंचन का बस चले तो जेब हियनही उल्टी कराय लेओ। तनिक गरीबन का भी जीये देओ। बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है और पैसा ही कि खुद मा आग लगाये है।" आढ़ती ने जैसे तैसे दे-दवाकर पिंड छुड़ाया। फिर वही रिपीट सीन रिक्शे वाले के संग। लेकिन रिक्शा वाला भी दद्दू सा निकला, टस से मस न हुआ बोला "30 की औकात हो तो बोरा लादो और बइठो नहीं त हम चले झकरकट्टी तुम निकल ल्येओ पतरी गली से।" औकात शब्द सुनते ही दद्दू का पारा मंहगाई सा चढ़ा और चिल्लाये "ज्यादा बड़ी अम्मा न बनो। पता है हमे तुमाई औकात। बाप मरे अँधेरे में औ लऊंडा पावरहाउस। रोज तीन सौ पईंसठ देखित है तुमाई तरे। चलो कट लेओ हिअन से।" और बोरा पीठ पे लाद के चल दिए। न चाहते हुए भी बोरे के वज़न से मेरी जीभ दब गयी और बोल उठी " दद्दू तुम रिक्शा ले लेओ, मैं दिए दे रहा हूँ रुपिया।" लेकिन मेरे कहे का दद्दू पर वैसा ही असर हुआ जैसे जनता के कहे का नेता पर। वो न ठिठके न रुके। बस हनुमान चालीसा सरीखे अपनी चिर परिचित बकबक के सहारे चल पड़े।
जाने क्यों आज मैं भी रोमांटिक मूड में था। पीछे पीछे चल पड़ा और मौका ताड़ के दद्दू को फिर टोंका। दद्दू का हुई गा बड़ी रफ्तार मा हो। दद्दू बोले "आज जरा जल्दी मा है। बुढ़िया का लईके अबै डाग्डर के ढींगए जान है। कल्हे से बिटिया से बादा भी कीन है कि आज ऊका नया सलवार सूट ले देबे। ताही के चक्कर मा हुआंई से बजारौ निकरने है।आज तीरे पईसा भी है। ऊ आढ़ती से 20 बचे और 30 जे रेक्सा वाले, शाम की बिकरी ठीक भई तो 100 और चित। आज का काम तो पैंतिस। बस टेम नहीं है। लेट हुईगा तो ऊ चमगादड़ की औलाद मुन्ना से फिन से उलझे का पड़ी।" जाने क्यों ये सब बताते समय दद्दू इतने आत्मीय लग रहे थे जैसे चुनावी साल में नेता। दद्दू के उस 150 रूपये के अर्थशास्त्र ने मेरे जेब में रखे 500 के नोट को वैसे ही आईना दिखाया जैसे अक्सर डॉलर रूपये को। पीठ पे लदे बोझ और कदमो की रफ्तार में कोई सामंजस्य नहीं था।
पहली बार लगा कि बोरे में अगर सब्जियां होती तो दद्दू कब के थक कर बैठ गए होते या रिक्शे में होते। पीठ पर बेताल सरीखे लदे बोरे में भरी थी जिम्मेदारियां, उनकी बीमार बुढ़िया की दवा और जवान होती जा रही बिटिया के सलवार सूट। जो समान रूप से पीठ पे बोझ और कदमों को रफ़्तार दे रही थी। विज्ञान की भाषा में कहूँ तो बोझ और चाल दोनों ही डायरेक्टली प्रपोशनल से लग रहे थे। मैं एकटक देख रहा था दद्दू को और वो तेज कदमों से चलते ही जा रहे थे। कि अचानक मेरी एकाग्रता में खलल पड़ी। कानों ने सुनी किसी कार के ब्रेक्स की तीक्ष्ण चिचिआहट और आँखों ने देखा दद्दू सामने  सड़क पर। मैं दौड़ कर पहुंचा। आदत के विपरीत दद्दू खामोश थे। अचेत शरीर सड़क के एक किनारे पर था। सब्जियों का बोरा कुछ दूरी पर बिखरा पड़ा था। लोगों की तमाशबीन भीड़ दद्दू के शरीर को घेर रही थी। सब्जियों के करीब आवारा जानवर दद्दू की आत्मा को पुण्य दिलाने के प्रयास में संघर्षरत थे। कार वाला भी खिली धूप का चन्द्रमा बन चुका था। धीरे धीरे भीड़ भी छंट ही रही थी। दद्दू का पार्थिव शरीर था सामने। तब तक मुन्ना भागकर दद्दू की बुढ़िया और जवान बेटी को बुला लाया था। पहली बार पाया कि दद्दू के अगल बगल चिल्ल मंची थी और दद्दू शांत थे। या शायद उस समय यमराज से हुज़्ज़त कर रहे होंगे कि बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है औ तुम का जल्दी मची है हमे ले जान की।।।।।।।

डॉ पवन मिश्र

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