Wednesday 22 June 2016

ग़ज़ल- मुश्तगिल थे इश्क में जो


मुश्तगिल थे इश्क में जो मुफ़्तकिर वो हो गए।
जीस्त का हर चैन खो कर मुंतशिर वो हो गए।।

बाप ने एड़ी घिसी औलाद की ख़ातिर मगर।
चार पैसे क्या कमाये? मुंजजिर वो हो गए।।

ज़िम्मेदारी जिनपे थी जुम्हूर के आवाज़ की।
दाम के चक्कर में देखो मुश्तहिर वो हो गए।।

चापलूसी खुदफ़रोशी ही चलन जिनका यहाँ।
आज बैठे तख़्त पे हैं, मुक़्तदिर वो हो गए।।

जूतियों से रौंदते थे आम को जो ख़ास बन।
साल जो आया चुनावी मुन्कसिर वो हो गए।।

पाकतीनत, पाकनीयत, पाकबीं जो थे पवन।
वक्त की करवट में गोया मुस्ततिर वो हो गए।।

                                 ✍ डॉ पवन मिश्र

मुश्तगिल= लग्न, तल्लीन
मुफ़्तकिर= दरिद्र, कंगाल
जीस्त= जिंदगी
मुंतशिर=अस्त व्यस्त, परेशान
मुंज़जिर=अलग रहने वाला
जुम्हूर= अवाम, जनता
मुश्तहिर= विज्ञापक
खुदफ़रोशी= धन/पद के लोभ में खुद को बेचना, गद्दारी करना
मुक़्तदिर= सत्तावान
मुन्कसिर= नम्र
पाकतीनत= स्वच्छ प्रकृति वाला
पाकनीयत= स्वच्छ मन वाला
पाकबीं= जो बुरा न देखे, समदर्शी
मुस्ततिर= गुप्त, गायब

4 comments:

  1. पाकतीनत, पाकनीयत, पाकबीं जो थे पवन।
    वक्त की करवट में गोया मुस्ततिर वो हो गए।।

    बहुत उम्दा गजल कही पवन भाई आपने....

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  2. पाकतीनत, पाकनीयत, पाकबीं जो थे पवन।
    वक्त की करवट में गोया मुस्ततिर वो हो गए।।

    बहुत उम्दा गजल कही पवन भाई आपने....

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