Sunday 5 June 2016

ताटंक छन्द- थर्रायी धरती फिर देखो


(२ जून २०१६ को जवाहर बाग़, मथुरा की हृदयविदारक घटना के सन्दर्भ में)

थर्रायी धरती फिर देखो, कुछ कुत्सित मंसूबों से।
स्वार्थ वशी हो कुछ अन्यायी, फिर बोले बंदूकों से।।
माँ का आँचल लाल हुआ फिर, रक्त बहा है वीरों का।
मुरली की तानों से हटकर, खेल हुआ शमशीरों का।१।

पूछ रही मानवता तुमसे, क्या तुम मनु के जाये हो।
ऐसा क्या दुष्कर्म किया जो, भारत भू पर आये हो।।
सत्याग्रह का चोला ओढ़े, तुम किस मद में खोये हो।
मथुरा की पावन धरती पर, क्यों अंगारे बोये हो।२।

क्रांति दूत खुद को हो कहते, तुमको शर्म नही आई।
कुछ एकड़ की भूमि देखकर, बन बैठे तुम सौदाई।।
दो वर्षों तक सांठ-गांठ से, तूने मथुरा को लूटा।
आंदोलन का पहन मुखौटा, स्वांग रचाया था झूठा।३।

तूने थोड़ी शह क्या पाई, सत्ता के गलियारों से।
सूर्य बुझाने निकल पड़े तुम, हाथ मिला अँधियारों से।।
राम नाम की मर्यादा का, कुछ तो मान रखा होता।
जिनकी जड़ से अलग हुए हो, उनका भान रखा होता।४।

तेरी ये काली करतूतें, इक दिन मोल चुकायेंगी।
आख़िर बकरों की अम्मायें, कब तक ख़ैर मनायेंगी।।
सुन लो ज्यादा दिन तक अब तुम, छुपकर ना रह पाओगे।
कान्हा की गलियों में ही तुम, जल्दी मारे जाओगे।५।

                         ✍ डॉ पवन मिश्र

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