Saturday 4 June 2016

मनहरण घनाक्षरी- भारती के मस्तक पे


भारती के मस्तक पे, शोभित मुकुट सा है।
भू के उस स्वर्ग हेतु, शत्रु बेकरार है।।
जा के समझाओ उसे, बात से या लात से कि।
उसकी सारी कोशिशें, तो अब बेकार है।।
ढीढ बन पीठ पर, बार बार वार करे।
शूकरों की फ़ौज का जो, बना सरदार है।।
खुद के हालात किये, बिना लाठी लंगड़े सी।
अपनी दशा का तो वो, खुद जिम्मेदार है।१।

बातें तो वो बड़ी बड़ी, रटता है घड़ी घड़ी।
रोटियों के टुकड़े को, खुद जो लाचार है।।
मांग मांग भरता जो, पेट अमरीका से है।
काश्मीर विजय का वो, रखता विचार है।।
भारतीय शावकों का, सामना करेगा कैसे।
रक्त नहीं नब्ज़ में तो, खौलता अंगार है।।
दुस्साहसी गीदड़ों की, टोलियाँ समक्ष खड़ी।
जिनकी शिराओं में तो, पानी की बहार है।२।

याद है इकहत्तर या भूले कटे हाथ को।
फिर वैसा लक्ष्य तेरे, शीश का लगाएंगे।।
सारे पुत्र भारती के, देख रहे स्वप्न यही।
कब इस्लामाबाद में, ध्वजा फहराएंगे।।
देखो ज्वार जोश के ये, कब तक मौन रहे।
कभी तो ये घटा जैसे, घोर गहराएंगे।।
भड़केगी अग्नि जब, हर गांव कूचे से तो।
देखे दिल्ली वाले इसे, कैसे रोक पाएंगे।३।

                         ✍ डॉ पवन मिश्र
          

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