Monday 28 October 2024

ग़ज़ल- अभी यह उन्स है प्यारे मुहब्बत दूर है तुमसे

अभी यह उन्स है प्यारे मुहब्बत दूर है तुमसे

अक़ीदत तक नहीं पहुँचे इबादत दूर है तुमसे


फ़क़त दो-चार दिन में छोड़ दें कैसे तकल्लुफ़ हम

अभी तारीफ़ ही ले लो शिकायत दूर है तुमसे


मेरे हमदम जरा सी दिल्लगी में रूठ जाते हो

तो इसके ये मआनी हैं ज़राफ़त दूर है तुमसे


सियासत में तुम्हे माना बुलंदी मिल गई लेकिन

अभी इंसानियत की यार रिफ़अत दूर है तुमसे


ये मेरा तजरिबा है ज़िंदगी का दोस्तों मानो

अगर माँ-बाप सँग हैं तो मुसीबत दूर है तुमसे


अभी तक तुम पवन पहुँचे रदीफ़-ओ-काफिया तक ही 

ग़ज़लगोई नहीं आसां लताफ़त दूर है तुमसे


✍️ डॉ पवन मिश्र


उन्स= लगाव, आकर्षण

अक़ीदत= श्रद्धा

तकल्लुफ़= औपचारिकता

ज़राफ़त= हँसी मज़ाक के प्रति समझ/अक्लमंदी

रिफ़अत= उत्कृष्टता, ऊंचाई

लताफ़त= ख़ूबी

ग़ज़ल- बताओ अक्स किसका है

चमकते चांद-तारों में बताओ अक्स किसका है

ये शबनम की फुहारों में बताओ अक्स किस का है


पहाड़ों और गारों में बताओ अक्स किसका है

वो गिरते आबशारों में बताओ अक्स किसका है


समंदर में किनारों में बताओ अक्स किसका है

नदी के बहते धारों में बताओ अक्स किसका है


गुलों में और ख़ारों में बताओ अक्स किसका है

चमन की इन बहारों में बताओ अक्स किसका है


चरागों में शरारों में बताओ अक्स किसका है

हर इक आईने में यारों बताओ अक्स किसका है


ख़ुदा का नूर ही है जो किये रौशन जहां सारा

नहीं तो इन नज़ारों में बताओ अक्स किसका है


✍️ डॉ पवन मिश्र


आबशारों= झरना

Thursday 24 October 2024

ग़ज़ल- कोई प्यासा ही था जिसने नदी ईजाद की होगी

कोई प्यासा ही था जिसने नदी ईजाद की होगी

ग़मों से लड़ रहा होगा खुशी ईजाद की होगी


तसव्वुर में किसी के हर घड़ी महबूब ही होगा

तभी उसने कसम से बंदगी ईजाद की होगी


किसी प्यासे या प्रेमी ने किसी मुफ़लिस या राजा ने

भला किसने यहां बादा-कशी ईजाद की होगी


हवा-पानी, कड़कती धूप से बेज़ार होकर ही

किसी ने एक सुंदर झोपड़ी ईजाद की होगी


बशर कैसे उसे कह दूँ, फ़रिश्ता ही रहा होगा

कि जिसने इस जहाँ में दोस्ती ईजाद की होगी


✍️ डॉ पवन मिश्र


बादा-कशी= मदिरापान

Tuesday 22 October 2024

ग़ज़ल- लेकिन शोर न हो

आह-ओ-फ़ुग़ाँ फ़रियाद सभी तुम कह दो लेकिन शोर न हो

अपनी चुप्पी मुझ तक आकर तोड़ो लेकिन शोर न हो


रहने दो दुनियावी नाज़ो नख़रे और तअल्ली सब

दिल की बातें कहनी हो तो कह दो लेकिन शोर न हो


रस्मों और रिवाज़ों के सारे बंधन ठुकराकर तुम

जब चाहो मुझसे मिलने आ जाओ लेकिन शोर न हो


रात जवां है, मैं हूँ, तुम हो, चांद-सितारे, सब तो हैं

अपना सर मेरे ज़ानू पे रक्खो लेकिन शोर न हो


हिज़्र उदासी तन्हाई बेचैनी सारे ग़म लेकर

दीवानों, तुमको तो हक़ है, तड़पो, लेकिन शोर न हो


✍️ डॉ पवन मिश्र


आह-ओ-फ़ुग़ाँ= विलाप

तअल्ली= डींग मारना

ज़ानू= गोद

Sunday 20 October 2024

ग़ज़ल- आईने में क्या बनाया जा रहा है

आईने में क्या बनाया जा रहा है

हू-ब-हू तुम सा बनाया जा रहा है


आंख केवल है ज़रीआ यार मेरे

दिल तलक रस्ता बनाया जा रहा है


यादों का नश्तर उठाकर हर घड़ी बस

ज़ख्म-ए-दिल गहरा बनाया जा रहा है


रील्स जबसे आ गईं मोबाइलों में

हुस्न को सस्ता बनाया जा रहा है


नाम पर जम्हूरियत के रफ़्ता-रफ़्ता

भीड़ को अंधा बनाया जा रहा है


क्रूरता को छांव देने के लिये

धर्म को मुद्दा बनाया जा रहा है


✍️ डॉ पवन मिश्र

ग़ज़ल- जिंदगी में वो मेरे रंग-फ़िशानी देगा

जिंदगी में वो मेरे रंग-फ़िशानी देगा

पास बैठेगा मुझे शाम सुहानी देगा


ख़ुश्क जज़्बात को वो आब-रसानी देगा

मेरी गज़लों को मेरा यार रवानी देगा


अपने पहलू में मुझे देगा सुकूँ वो यारों

और शेरों को मेरे रूह-म'आनी देगा


उसका होना ही चमक देता है नज़रों को मेरी

ये ज़माना तो महज आंखों को पानी देगा


तू ने भी मान लिया है जो मुझे मुज़रिम तो

फिर बता कौन मेरे हक़ में बयानी देगा


घर की तुलसी की नहीं कद्र यहां जब यारों

तो बबूलों को भला कौन मकानी देगा


✍️ डॉ पवन मिश्र


आब-रसानी= पानी पहुँचाना


Saturday 19 October 2024

ग़ज़ल- अब मुझको मगहर जाना है

मुझको अपने घर जाना है

अब मुझको मगहर जाना है


मंदिर मस्ज़िद घूम लिये सब

अब खुद के भीतर जाना है


राम रमापति जपते-जपते

भवसागर से तर जाना है


दुनिया में बस नाम बचेगा

ज़िस्म सभी का मर जाना है


रंग-ओ-बू पर इतराना क्यों

इक दिन सब कुछ झर जाना है


✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday 17 October 2024

ग़ज़ल- मस्त-क़लन्दर ढूंढ रहा हूँ

मस्त-क़लन्दर ढूंढ रहा हूँ

खुद के भीतर ढूंढ रहा हूँ


फूलों से अब डर लगता है

पत्थर में घर ढूंढ रहा हूँ


ढेरों पुस्तक पढ़ डाली हैं

ढाई आखर ढूंढ रहा हूँ


पर्वत-पर्वत बस्ती-बस्ती

अपना मगहर ढूंढ रहा हूँ


तिश्ना-लब की ख़ातिर यारों

एक समुंदर ढूंढ रहा हूँ


सर के साथ ढके पैरों को

ऐसी चादर ढूंढ रहा हूँ


✍️ डॉ पवन मिश्र

Wednesday 9 October 2024

ग़ज़ल- कभी आना तो अपने साथ गुड़-धानी लिए आना

कभी आना तो अपने साथ गुड़-धानी लिए आना

हमारी तिश्नगी के वास्ते पानी लिए आना


गए हो छोड़कर जबसे बहुत गहरा अँधेरा है 

अगर आना इधर तो यार ताबानी लिए आना


मैं तिनका ही सही लेकिन सहारा अंत तक दूंगा

परखना हो अगर तो आप तुग्यानी लिए आना


मिलेंगे, साथ बैठेंगे, निकालेंगे कोई रस्ता

सुनो हमदम तुम अपनी हर परेशानी लिए आना


किसी बच्चे से मिलना तो भुला देना जवां हो तुम

मेरी ख़ातिर भी उससे एक नादानी लिए आना


✍️ डॉ पवन मिश्र

ताबानी- प्रकाश

तुग्यानी- बाढ़

Monday 7 October 2024

ग़ज़ल- बात बाज़ार तक नहीं पहुंची

बात अख़बार तक नहीं पहुंची

बीच बाज़ार तक नहीं पहुंची


प्यास हद पार तक नहीं पहुंची

उनके रुख़सार तक नहीं पहुंची


आह तड़पी मेरी बहुत लेकिन

मेरे ग़मख़्वार तक नहीं पहुंची


जिंदगी फँस गयी किताबों में

ज्ञान के सार तक नहीं पहुंची


पैरहन तक तो आ गयी दुनिया

किंतु किरदार तक नहीं पहुंची


कोशिशें तो बहुत हुईं लेकिन

नींद बेदार तक नहीं पहुंची


जिंदगी रोज चल रही लेकिन

एक इतवार तक नहीं पहुंची


कह तो ली है मगर ग़ज़ल शायद

अपने मेआ'र तक नहीं पहुंची


✍️ डॉ पवन मिश्र