मस्त-क़लन्दर ढूंढ रहा हूँ
खुद के भीतर ढूंढ रहा हूँ
फूलों से अब डर लगता है
पत्थर में घर ढूंढ रहा हूँ
ढेरों पुस्तक पढ़ डाली हैं
ढाई आखर ढूंढ रहा हूँ
पर्वत-पर्वत बस्ती-बस्ती
अपना मगहर ढूंढ रहा हूँ
तिश्ना-लब की ख़ातिर यारों
एक समुंदर ढूंढ रहा हूँ
सर के साथ ढके पैरों को
ऐसी चादर ढूंढ रहा हूँ
✍️ डॉ पवन मिश्र
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